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रविवार, 19 जनवरी 2025
शुक्रवार, 30 अगस्त 2024
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (6).... दादा! एक्सटेंपोर साहित्यकार थे
सन् 1970 जुलाई में केजीके पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में मैंने एडमिशन ले लिया। उन दिनों डिग्री कॉलेज में पढ़ने के गौरव और वैभव के अपने अलग ही ठाट-बाट थे। मैं अप-टू-डेट होकर इसे जीने के लिए हर दृष्टि से तैयार था।फूफा जी के पास रहकर जो चाचा जी सीडीओ ऑफिस में नौकरी करते थे,उनका सन् 1968 की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में विवाह हुआ था। बारात में पहनने के लिए उन्होंने मेरे लिए भी एक जोड़ी पैंट और शर्ट बनवाए थे। तब से ही मेरे पहनावे में पैंट-शर्ट दाखिल हो चुके थे। फूफा जी बहुत टीप-टॉप रहने वाले व्यक्ति थे। खद्दर के धोती कुर्ता एक दम सफेद बुर्राक प्रेस हुए ही पहनते थे। उस समय लोहे की छोटी प्रेस उनके घर पर ही थी। मैंने प्रेस करना और प्रेस हुए कपड़े पहनना सीख लिया था। अब मैं डिग्री कॉलेज का विद्यार्थी था न।
फूफा जी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उसी कॉलेज में पहूँच गया तो उन्हें देखने की इच्छा और भी बलवती हो गई।उसका एक कारण यह भी था, जिसकी चर्चा करना बहुत आवश्यक है।फूफा जी ने मुझे और फुफेरे भाई मुन्नू को हसनपुर तहसील के गंगेश्वरी गाँव एक पर्चा देकर कैलाश देव जी के पास भेजा। मैं और मुन्नू सुबह ही पहली गाड़ी से निकलने के लिए स्टेशन पहुँच लिए।जब हम स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी सीटी दे रही थी। चलने को एकदम तैयार थी।हम टिकिट बिना लिए भाग कर गाड़ी में चढ़ लिए। हमें गजरौला उतरना था। गाड़ी गजरौला जाकर रुकी और हम उतर कर बाहर निकलने वाले गेट की तरफ बढ़ लिए। यद्यपि लोग दाएँ-बाँए से भी अपने जाने पहचाने निकासों से भी निकल रहे थे, पर हमें इतनी अक्ल नहीं थी। हम निकासी गेट की ओर ही बढ़ते गए।गेट पर मुस्तैद टी.सी. महोदय ने हमसे पूछा लिया कि टिकिट?। टिकिट होता तो हम कुछ बोलते। टिकिट था नहीं तो हम कुछ बोले भी नहीं।टी.सी. महोदय ने हमें अपने बराबर में एक ओर को खड़ा कर लिया। टिकिट कलेक्शन का कार्य पूरा करने पर वह हमें अपने कमरे में ले गए।वहाँ उन्होंने हमसे प्रश्न किए। हमने उनके प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिए। क्या करते हो के उत्तर में हमने कहा कि हम विद्यार्थी हैं। उन्होंने तपाक से पूछा - ' कहाँ पढ़ते हो '? मैंने फटाक से कहा कि केजीके कॉलेज में।उनका प्रश्न था - ' किस कक्षा में?' मैंने कह दिया कि बी.ए.फर्स्ट में।उन्होंने पूछ लिया कि हिन्दी कौन पढ़ाता है? मैंने कहा - ' प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी।' इस उत्तर पर वह रुक गए। आगे अन्य कोई प्रश्न नहीं किया और कहा - 'आगे से कभी बिना टिकिट मत चलना। तुम्हें इसलिए छोड़े देता हूँ कि मैं भी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का ही विद्यार्थी हूँ।' जान बची और लाखों पाए।हम झट से निकल बाहर को आए। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की ऐसी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान,जिसने हमें जेल जाने से बचवा दिया। इस घटना का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि उनका नाम मेरे हृदय में घर कर गया। मैं उनकी छवि को भी अपने हृदय में उतार कर बसाना चाहता था, इसलिए उनके दर्शन करने को उतावला था। एक दिन मित्र के इंगित करने पर कि वह हैं, प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी। मैंने दूर से ही उनके दर्शन कर लिए और इतने भर से ही मेरी मन मुराद पूरी हो गई। अब उनकी छवि ने भी मेरे हृदय में उतर कर घर कर लिया। इसके बाद से प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी मेरे हृदय से नहीं निकले। मैं उन्हें अपने भीतर लेकर जिया हूँ। उनके प्रति अपने इसी भाव के कारण मैंने अपनी गीत कृति " गीतों के भी घर होते हैं " उनको समर्पित करके अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। पर अभी तो उन्हें मात्र देखा भर था, उनसे परिचय शेष था और उनकी कक्षा में पढ़ना बाकी था।
यह इच्छा भी तब पूरी होती दिखी जब अपनी कक्षा के टाइम-टेबल में हिन्दी साहित्य का पीरियड तीन दिन प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के नाम आवंटित दिखा। वह दिन भी आ ही गया,जब मैं प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी की कक्षा में मैं खड़ा होकर अपना परिचय दे रहा था। परिचय में फूफाजी का नाम आने पर मेरा परिचय पूरा हो गया और उन्होंने कहा कि चन्द्र दत्त जी को मैं भली भाँति जानता हूँ।बैठ जाओ।पूरी कक्षा के सभी छात्रों का संक्षिप्त परिचय होने के बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने अपने एक ही घंटे में कक्षा नहीं छोड़ी अपितु दो घंटे तक क्लास ली।उनका पढ़ाना एकदम अलग तरह का था। जिसका उद्देश्य किताब पढ़ाना कतई नहीं था बल्कि यह पढ़ाना था कि हम विद्यार्थी अपने विषय को पढ़ना सीख जाएँ और उसे पढ़ना सीखकर दूसरों तक पहुँचाना सीख जाएँ। पढ़ाई के साथ मूल्यांकन के लिए जुड़ी परीक्षा शायद इसीलिए ही है। दुर्योग से उस वर्ष मैं कड़ी मेहनत करने पर भी बी.ए.पार्ट वन में फेल हो गया। पुनः बी.ए.पार्ट वन में एडमिशन ले लिया। अब तक कॉलेज में मेरा नाम मुझे पढ़ाने वाले शिक्षकों तक इस रूप में भी पहुँचने लगा था कि मैं कविता करता हूँ। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के संज्ञान में भी यह बात आ गई। एक दिन उन्होंने मुझसे स्वयं कहा कि कविता लिखते हो,मेरे घर "अंतरा" की गोष्ठी में आया करो।
यह प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का मेरे प्रति उनके
भीतर उमड़ा अगाध स्नेह ही था जिसने मेरा "अंतरा" में जाने का संकोच खत्म कर दिया। "अंतरा" की गोष्ठी दूसरे और चौथे रविवार को प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के कटरा नाज़ स्थित घर पर ही होती थी। जो मेरा देखा-भाला था, फिर भी मैं सन् 1971 के अगस्त माह के दूसरे या चौथे सोमवार को गया था,यह तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, पर मैं हुल्लड़ मुरादाबादी जी के साथ गया था, क्योंकि तब तक मैं उनके संपर्क में आ चुका था। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर पहुँचकर मैंने उनके चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम किया तथा उनके बाद अन्य वरिष्ठों के चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन वहाँ पर सभी आगंतुक प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी का अभिवादन "दादा" कहकर कर रहे थे। उस दिन मुझे पहली बार पता लगा कि प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी को सभी लोग दादा संबोधन से ही पुकारते हैं। यहाँ तक कि उनके बच्चे वंदना, गोपाल, गोविंद और आरती भी। गोष्ठी में मेरी रचना को भी सराहना मिली और मुझे विशेष लाभ यह हुआ कि उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में से अधिकतर से मेरा परिचय एक साथ ही हो गया। फिर "अंतरा" की गोष्ठी में मेरी उपस्थिति नियमित हो गई। गोष्ठी में सबसे पहले पहुँचना और सबसे बाद में आना। गोष्ठी दिवसों के इन दोनों अंतरालों में दादा को सुनकर लाभान्वित हो लेना मेरी आवश्यक दिनचर्या बन गई, जिससे मैं दादा को जी भरके सुन सकने का सौभाग्य पा सका। हर महीने के इन दो दिनों में ही मैंने उनसे वह सुना जो किसी ने नहीं सुना।
उन दिनों "अंतरा" में नियमित आने वाले सदस्यों
में पं.दुर्गा दत्त त्रिपाठी,अंबालाल नागर,क़मर मुरादाबादी, गौहर उस्मानी पं.मदन मोहन व्यास, कैलाश चन्द्र 'अधीर' सुरेश दत्त शर्मा 'पथिक', बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी',मनोहर लाल वर्मा,शील कुमार 'शील', ललित मोहन भारद्वाज, हुल्लड़ मुरादाबादी, अजय अनुपम प्रमुख थे। गौहर उस्मानी साहब के बाद मंसूर उस्मानी भी "अंतरा" की गोष्ठियों में आते रहे हैं। मुरादाबाद के अन्य रचनाकार भी समय-समय पर "अंतरा" से जुड़ते रहे हैं। प्रवेश मिलने पर मैं नवप्रवेशी भी नियमित आने लगा ही था और मुरादाबाद आने पर आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी भी "अंतरा" में नियमित आने लगे थे। मेरी याद में मुरादाबाद की साहित्यिक परंपरा में ऐसी उच्च कोटि का कालखंड आजतक कभी नहीं रहा। मैं उस कालखंड की छाया में लम्बे समय तक अपने रचना-कर्म में पलकर रचना-धर्म के साँचे में ढला हुआ व्यक्ति हूँ, जिसने सभी से बहुत कुछ सीखा है।
दादा! उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही,साथ ही वह उच्च कोटि के वक्ता भी थे।जो भी विद्याार्थी उनसे पढ़े या जिन व्यक्तियों ने भी उन्हें सुना उन सब पर उनका उच्च कोटि का ज्ञान उच्च कोटि में ही पहुँचा।वह जिस बहुमुखी और बहुआयामी प्रतीभा वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे, उसके लिए विलक्षण शब्द भी अपनी भावाभिव्यक्ति में सटीक प्रतीत नहीं होता। वह हर विषय पर खूब बोलते थे।बड़ा जमकर बहुत ही सटीक बोलते थे। कितने ही समय तक निर्बाध बोलते रहने की विद्वता उनमें विद्यमान थी। सृजनशीलता भी उनमें भरपूर थी, पर वह उसे कागज़ पर उतारने में बेहद उदासीन थे। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक विचार अकाट्य होता था।वह तार्किक नहीं थे अपितु विषयों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक जानकार थे। दादा को मैंने जितना भी सुना,उससे मुझे लगता था कि दादा वर्तमान नामधारी साहित्यकारों में से किसी से भी उन्नीस नहीं हैं। वह आपनी साहित्यिक निधि कागज़ पर उतार कर संचित करने वाले साहित्यकार न होकर साहित्य को उस ही की भाषा में अपनी वाणी की मिठास से सुधीजन के हृदय में उतार देने वाले साहित्यकार थे।अपनी छोटी सी साहित्यिक समझ के आधार पर मैं यह कहने में कतई संकोच नहीं करूँगा और न ही लेश मात्र भी हिचकूँगा कि दादा 'एक्स्टेंपोर' साहित्यकार थे। यदि मुझे हिन्दी साहित्य की विशद व्याख्या का सुअवसर मिला होता तो उस कालखंड में 'एक्सटेंपोर' अर्थात 'आशु साहित्य' की खोजबीन और छानबीन करके उस कालखंड को "प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप युग " नाम देने के हर संभव प्रयास और अपने स्तर के सारे यत्न किए होते।
मेरी इस भावना को इस आलेख की ये अंतिम पंक्तियाँ निश्चित ही पुष्ट करेंगी। दादा के अध्ययन काल के सहपाठियों की मंडली में डॉ. शम्भू नाथ सिंह, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, डॉ. विजय देव नारायण साही, केशव चन्द्र वर्मा आदि जैसी साहित्य की महान विभूतियाँ थी,जो उस समय अपने-अपने क्षेत्र की सिरमौर थीं। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी क्या नहीं हो सकते थे? इनमें से विजय देव नारायण साही के अतिरिक्त मैं समय-समय पर इन सभी से मिला हूँ और मेरी इन सभी से दादा को लेकर खूब चर्चा हुई है। उनसे हुई चर्चा में एक बात सभी ने प्रमुखता से कही - " हमारी मित्र मंडली में सर्वाधिक योग्य विद्यार्थी का नाम महेन्द्र प्रताप था।
✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड,मुरादाबाद- 244001
मोबाइल: 9319086769
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शुक्रवार, 25 अगस्त 2023
मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार गजेंद्र सिंह एडवोकेट का आलेख .....बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रोफेसर महेंद्र प्रताप। उनका यह आलेख अमरोहा से प्रकाशित दैनिक आर्यावर्त केसरी के गुरुवार 24 अगस्त 2023 के अंक में प्रकाशित हुआ है ।
वे कटरा नाज के गेट के पास एक दुमंजिले भवन में, जिसे शायद हर गुलाल बिल्डिंग कहते थे, में निवास किया करते थे । मैगजीन की सामग्री के चयन के लिए अनेक बार उनके निवास पर जाना हुआ करता था । वंदना और यशोधरा के साथ मिलकर रचनाओं की जांच पड़ताल की जाती थी तदुपरान्त उनके सामने सामग्री रखी जाती थी जिनके बारे में वे महत्त्वपूर्ण सुझाव और परामर्श दिया करते थे । उस समय उनका व्यवहार पूर्णतया मित्रवत होता था । विचार विमर्श के पश्चात अंत में वे अंतिम चयन किया करते थे । उस क्षण उनके परामर्श का वह अपनापन आज भी मेरी यादों में सुरक्षित है तथा गर्व की अनुभूति देता है। उनका आभामंडल इतना दैदीप्यमान रहता था, हर क्षण चेहरे पर तेज चमकता था उनकी समझाने की शैली भी अद्वितीय रहती थी ।1969 में, मैं एम ए अर्थशास्त्र के द्वितीय वर्ष का छात्र था। मेरे साथी शर्मेन्द्र त्यागी भी थे, जो कालांतर में वर्ष १९८९ में मुरादाबाद पश्चिम से जनता दल के विधायक निर्वाचित हुए थे और मुलायम सिंह की सरकार में विधि राज्य मंत्री बने थे, मैं और शर्मेन्द्र त्यागी दोनों ही जनपद बिजनौर की धामपुर तहसील क्षेत्र के निवासी थे छात्र संघ का चुनाव घोषित हो चुका था हमने बिजनौर जनपद के छात्रों को संगठित करके अध्यक्ष पद के लिए शर्मेन्द्र त्यागी का नामांकन करा दिया तथा चुनाव प्रचार में लग गये इसकी सूचना प्रो महेंद्र प्रताप जी को हुई तो उन्होंने हम दोनों को बुलवाया और निर्देश दिए कि चुनाव शांति पूर्वक और कालेज की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही होना चाहिए उनके निर्देशों का पालन करते हुए शालीनता से चुनाव संपन्न हुआ और शर्मेन्द्र त्यागी को विजय मिली।
उस समय बी ए कक्षाओं की फीस 15 रूपये और एम ए तथा एल एल बी की कक्षाओं की फीस 18 रुपये प्रतिमाह कालेज में जमा कराई जाती थी लेकिन अनेक छात्रों की आर्थिक स्थिति इस फीस को जमा करने की नहीं होती थी और इस कारण छात्रों को पढा़ई बीच में रोकनी पड़ती थी, ऐसे समय प्रोफेसर महेंद्र प्रताप जी देवदूत बनकर ऐसे छात्रों के जीवन में आते थे उस समय प्रवेश के समय प्रत्येक छात्र को एक रुपया पुअर ब्वायज फंड में जमा करना होता था ऐसे छात्र की फीस प्रोफेसर साहब की संस्तुति पर उस फंड से करा दी जाती थी तथा तैयारी करने के लिए वे अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके लाईब्रेरी से पुस्तकें भी जारी करा दिया करते थे। इस सब के पीछे एक ही उद्देश्य रहता था कि कोई छात्र अध्ययन से वंचित न रह जाए। आर एस एम कालेज धामपुर जिला बिजनौर के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष डाक्टर शंकर लाल शर्मा ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ में हिंदी में पी एच डी करने के लिए अपना नामांकन कराया था और काफी कार्य भी हो चुका था इसी बीच डाक्टर शर्मा की नियुक्ति आर एस एम कालेज धामपुर के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के रूप में हो गयी जिसके कारण पी एच डी कार्य के लिए अलीगढ़ जाना संभव नहीं हो पा रहा था। डाक्टर शर्मा ने मुरादाबाद में प्रोफेसर महेंद्र प्रताप से मिलकर अपनी समस्या बताई। इस पर सहानुभूति पूर्वक प्रोफेसर साहब ने उनका निर्देशक बनना स्वीकार किया और इस प्रकार पी एच डी नामांकन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से रूहेलखंड यूनिवर्सिटी बरेली में स्थानांतरित हो गया तथा शेष कार्य अपने निर्देशन में कराया फलस्वरूप डाक्टर शर्मा को पी एच डी की उपाधि प्राप्त हो सकी।बिजनौर जनपद के अनेक छात्र प्रतिदिन नजीबाबाद, नगीना, धामपुर, स्योहारा तथा मुरादाबाद जनपद के कांठ क्षेत्र से जम्मू तवी से सियालदाह जाने वाली एक्सप्रेस यात्री गाड़ी से मुरादाबाद के विभिन्न कालेजों में पढ़ने के लिए आया करते थे। एक बार जम्मू तवी सियालदाह एक्सप्रेस में रेलवे मजिस्ट्रेट ने भारी पुलिस बल के साथ चैकिंग अभियान चलाया और अनेक लोगों को बिना टिकट यात्रा करते हुए धर दबोचा। इनमें छात्र भी शामिल थे। यह समाचार मुरादाबाद के कालेज क्षेत्रों में तुरंत फैल गया। हिन्दू कालेज और के जी के कालेज के ही अधिकतर छात्र इस घटना से प्रभावित हुए थे इसलिए फौरन दोनों महाविद्यालयों के जिम्मेदार प्रोफेसर एक्शन में आ गये। मैं उस समय वकालत करते हुए ही मुरादाबाद डिवीजनल सुपरिटेण्डेन्ट उत्तर रेलवे की ओर से रेलवे एडवोकेट नियुक्त हो चुका था। प्रोफेसर महेंद्र प्रताप का अधिकार पूर्वक संदेश मुझे प्राप्त हुआ कि तुरंत प्रभावी कार्रवाई कराकर छात्रों को जेल से मुक्त कराया जाए। उस आज्ञा की अवज्ञा का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। अत: संदेश मिलते ही फौरन आवश्यक कार्यवाही करते हुए जुर्माने की राशि की व्यवस्था कराकर जमा कराई गई और नियमानुसार रिहाई संभव हो सकी यदि वो रुचि न लेते तो अनेक छात्रों का कैरियर बर्बाद हो ही जाता यह एक आदर्श गुरु वाला आचरण था अपने शिष्यो के प्रति। स्मृतियों के झरोखे में एक स्मृति यह भी है कि अपने गुरु का मान किस प्रकार किया जाता है प्रोफेसर महेंद्र प्रताप की शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हुई थी इस विश्वविद्यालय में धर्म और दर्शन विभाग में डा बीएल अत्रे कार्यरत थे यद्यपि प्रोफेसर प्रताप हिंदी के छात्र थे तथापि दोनों के संबंध गुरु शिष्य वाले थे डाक्टर बीएल अत्रे भारत के पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के समकालीन थे । उनके पुत्र डा जगत प्रकाश आत्रेय के जी के कालेज मुरादाबाद में दर्शन शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। डाक्टर जगत प्रकाश आत्रेय की पत्नी प्रकाश आत्रेय गोकुलदास हिन्दू गर्ल्स कालेज मुरादाबाद में मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्षा थीं और मैं भी इसी कालेज में कार्यरत था । 1972 में एक दिन डाक्टर जगत प्रकाश आत्रेय की ओर से निमंत्रण मिला कि अमुक समय पर मेरे आवास पर पहुंचना है चूंकि उनकी धर्मपत्नी डाक्टर प्रकाश आत्रेय गोकुलदास हिन्दू गर्ल्स कालेज में कार्यरत थीं इसलिए मुझे भी वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करानी थी। वहाँ डा आत्रेय के पिता डाक्टर बीएल आत्रेय आए हुए थे वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन तथा धर्म शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए थे । शिक्षा जगत में उनकी बड़ी महत्ता थी ।धीरे धीरे वहाँ प्रो बदन सिंह वर्मा, अध्यक्ष राजनीति शास्त्र विभाग, प्रो आर एम माथुर अध्यक्ष भूगोल विभाग, पीएनटंडन चीफ प्रोक्टर तथा अध्यक्ष समाज शास्त्र विभाग, प्रो आर एन मेहरोत्रा प्रवक्ता अर्थशास्त्र विभाग, जय मोहन लाईब्रेरी विभाग, डाक्टर शिव बालक शुक्ल प्रवक्ता हिंदी विभाग के जी के कालेज मुरादाबाद भी आ गये थे वहाँ प्रो महेंद्र प्रताप पहुँच गये थे । मुरादाबाद के शिक्षकों की ओर से प्रो महेंद्र प्रताप ने डाक्टर बीएल आत्रेय को कश्मीरी दुशाला ओढाकर आदरपूर्वक सम्मानित किया वह क्षण वास्तव में दुर्लभ तथा दर्शनीय था ।
राजनीति के क्षेत्र में वे डा राम मनोहर लोहिया की राजनीति के पक्षधर थे तथा मुरादाबाद सीट पर आमोद कुमार अग्रवाल को चुनाव लडा़या करते थे। आमोद कुमार अग्रवाल उस समय मुरादाबाद के एच एस बी इंटर कालेज में अध्यापन कार्य किया करते थे । चुनाव संबंधी बैठकों में पंडित मदनमोहन व्यास( हिंदी अध्यापक पारकर इंटर कालेज मुरादाबाद) कठघर क्षेत्र निवासी हिंदी अध्यापक रामप्रकाश शर्मा, प्रो पी एन टंडन, अंग्रेजी टीचर बीवी शर्मा आदि बुद्धि जीवी सम्मिलित हुआ करते थे और यदाकदा मैं भी अपने कुछ साथियों के साथ बैठकों के अतिरिक्त चुनाव प्रचार संबंधी कार्यों के निष्पादन के लिए चला जाया करता था।
दैनिक जय जगत हिंदी समाचार पत्र के संपादक पंडित सत्यदेव उपाध्याय, दैनिक मुरादाबाद टाईम्स के संपादक ठाकुर शिवराम सिंह तथा पत्रकारिता जगत के अनेक बंधुओं से उनके आत्मीयता पूर्ण संबंध हुआ करते थे। प्रोफेसर महेंद्र प्रताप बहुत विशाल और बहु आयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे मुझे लगता है कि स्मृतियों के झरोखों से मैं बहुत कुछ निकाल चुका हूँ लेकिन शायद अभी भी प्रोफेसर महेंद्र प्रताप की सेवा में कहने को बहुत कुछ शेष है प्रोफेसर महेंद्र प्रताप को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि...
✍️ गजेन्द्र सिंह, एडवोकेट
धामपुर
जनपद बिजनौर
उत्तर प्रदेश, भारत
( लेखक धामपुर प्रेस क्लब के संरक्षक तथा जिला अधिवक्ता एसोसिएशन धामपुर के संस्थापक अध्यक्ष हैं)
मंगलवार, 22 अगस्त 2023
मंगलवार, 22 मार्च 2022
मुरादाबाद के साहित्यकार एवं केजीके महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य स्मृतिशेष दादा प्रो.महेंद्र प्रताप जी द्वारा लिखित ललित मोहन भारद्वाज जी के मुक्तक संग्रह 'प्रतिबिम्ब' की भूमिका का अंश
'प्रतिबिम्ब' मुक्तक काव्य स्फूर्तियों का संकलन है। मुक्तक काव्य रचना का परम स्वाभाविक और प्राचीन रूप है और संसार के सभी साहित्यों में उस की सुदीर्घ और महत्वपूर्ण परम्परा मिलती है। भारतीय वाङ् मय में तो मुक्तक रचनाओं को और भी अधिक मान्यता और प्रतिष्ठा प्रदान की गई है। हमारे बहुसंख्यक वेदमन्त्र अत्यन्त सुन्दर काव्य मुक्तकों के उदाहरण हैं। संस्कृत में अष्टकों, शतकों और सप्तशतियों के रूप में ऐसे गौरवपूर्ण काव्य मुक्तकों के कितने ही संकलन पाये जाते हैं जिनकी महिमा प्रसिद्ध महाकाव्यों के समान ही मानी जाती है। लोक-प्रचलन और लोकप्रियता में तो वे किसी सीमा तक महाकाव्यों और नाटकों से भी आगे थे। 'प्राकृत सतसई', अमरुक का 'अमरु शतक', भर्तृहरि के 'शृंगार शतक', 'नीति शतक' तथा 'वैराग्य शतक तथा गोवर्द्धनाचार्य की 'आर्या सप्तशती' आदि ऐसी मुक्तक-कृतियां है जिन्हें अपने समकालीन काव्य रसिकों से भी मान मिला और जिन्हें आज भी पूरे आदर और निष्ठा के साथ स्मरण किया जाता है। हिन्दी का अधिकांश भक्ति और रीतिकालीन काव्य मुक्तकों के रूप में ही रचा गया है। कबीर, दादू, तुलसी, केशव, रहीम, बिहारी, देव, घनानन्द, आलम, बोधा, वृंद आदि कवियों की रचनाओं में प्रमुखता मुक्तकों की ही है। आधुनिक काल में भी मुक्तक के माध्यम से भारतेन्दु, रत्नाकर और हरिऔध जैसे महाकवियों ने अपार कीर्ति अर्जित की है।
कुछ लोग कबीर, तुलसी और भारतेन्दु जैसे कवियों की पदशैली वाली काव्य रचनाओं को, प्रसाद, निराला, महादेवी आदि की आधुनिक प्रगीति रचनाओं को अंग्रेजी के शैली, कीट्स जैसे कवियों की ओडों और सानेटों को, तथा उर्दू की ग़ज़लों और गीतों को भी मुक्तकों की कोटि में ही गिनना चाहते हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा करना ठीक नहीं है। बाहरी रचना की दृष्टि से मुक्तक का एक आवश्यक लक्षण यह है कि वह एक ही छन्द का होता है, चार चरणों वाले एक ही छन्द का। इस लक्षण का उल्लंघन होते ही रचना प्रकृत रूप में मुक्तक नहीं रह जाती। पद, गीत, गजल, सॉनेट आदि बहुछन्दीय रचनायें होती हैं। उन्हें शुद्ध मुक्तकों की कोटि में स्थान देने का आग्रह नहीं होना चाहिए। ऐसा करने से मुक्तक के एकछन्दीय होने का कालातीत रूप में स्थिर लक्षण खण्डित और धूमिल हो जाता है।
मशीनी मुद्रण के प्रचलन से पूर्व काव्य का प्रसार और आस्वादन मौखिक पाठ के माध्यम से हुआ करता था। स्मरण कर लेने और अवसर के अनुसार उद्धृत करने में सुविधा की दृष्टि से उस काल में मुक्तकों का महत्व बहुत अधिक था। पर मुक्तकों के इस गुण का महत्व आज भी किसी सीमा तक बना ही हुआ है।
हिन्दी में मुक्तक रचना की शैली अभी कुछ समय पूर्व तक भक्ति और रीतियुगीन भाव-भूमि और शिल्प से जुड़ी हुई थी, जिसके चलते दोहाबलियों और सवैया तथा कवित्त छन्दों में लिखे मुक्तकों का प्रचलन था। पर इधर हाल में हिन्दी मुक्तकों ने उर्दू के 'कतों' का ढर्रा अपनाया है। ग़ज़ल अथवा नज्म सुनाने से पहले उर्दू के शायर 'कतों' के रूप में एकछन्दीय-मुक्तक सुनाया करते हैं। सुनने वालों पर इन 'कतों' का गहरा प्रभाव पड़ता देखा जाता है और अक्सर उर्दू के शायर इन 'कतों' के सहारे श्रोताओं में उस भावात्मकता को जाग्रत कर लेते हैं जो उनकी गजल अथवा नज्म के परिपूर्ण आस्वाद के लिये आवश्यक होती है। इन 'कतों' में अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों का ही निखार चरम रूप में लाने का प्रयत्न किया जाता है और इस कारण ये 'कते' बहुत ही मनोरम होते हैं।
उर्दू की इस मुक्तक परम्परा का अनुसरण करते हुए हिन्दी में मुक्तक रचना का जो एक नया उल्लास सामने आया है, थोड़ी अवधि में ही उसकी उपलब्धियाँ बहुत विशिष्ट हो गई हैं। काव्य में रसात्मकता और संगीतात्मकता के हामी अधिकांश हिन्दी कवियों ने मुक्तक रचना के इस नये अभियान में अपना-अपना योगदान किया है। स्वीकार करना होगा कि इस नई शैली की मुक्तक रचना के शुभारम्भ और प्रचार में कवि श्री 'नीरज' के प्रयासों का विशेष महत्व है। यह जरूर है कि उर्दू भाषा और उर्दू शायरी के माहौल से बहुत अधिक प्रभावित होने के कारण श्री नीरज अपने मुक्तकों को वह रूप नहीं दे पाये जिसे उर्दू के मुक्तकों से अलग हिन्दी के मुक्तकों का अपना रूप कहा जा सकता। किन्तु हिन्दी में मुक्तक रचना को नई प्रेरणा और आयाम देने की दृष्टि से नीरज का योगदान बहुत विशिष्ट है, इसे स्वीकार करना ही होगा |
इस नई मुक्तक रचना की कुछ अपनी विशेषताएं हैं। इन मुक्तकों में सौन्दर्य प्रेम और गहन जीवनानुभवों की मार्मिक अभिव्यक्ति होती है और उसे प्रभावशाली बनाने के लिये भाषा को लय, गति तथा छन्द का विशिष्ट सौन्दर्य प्रदान किया जाता है। मुक्तक रचना में अभिव्यंजना-सौन्दर्य पर इतना अधिक बल दिया जाता है कि कभी-कभी अनुभूति सम्बन्धी कोई विशेषता न होने पर भी मात्र अभिव्यञ्जना के सौन्दर्य के कारण ही कुछ मुक्तक सार्थक और सफल माने जाते हैं।
'प्रतिबिम्ब' में संकलित श्री ललित भारद्वाज के ये मुक्तक हिन्दी की इसी नई मुक्तक परम्परा को आगे बढ़ाते है और उसे चिन्तन, अनुभूति तथा अभिव्यञ्जना को नई समृद्धि से मंडित करते हैं। श्री ललित की काव्य दृष्टि परम्परा प्राप्त काव्य-दृष्टि से जुड़ी हुई है और रसानुभूति तथा संगीतात्मक अभिव्यञ्जना का साथ कभी नहीं छोड़ती। मैं इसे ललित के व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास का परिचायक मानता हूं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता, दार्शनिकता तथा जीवन-निष्ठा के जो तत्त्व श्री ललित के इन मुक्तकों की पंक्ति-पंक्ति में अनुस्यूत हैं वे मेरे विचार से आज के विक्षुब्ध मानव की सबसे बड़ी आवश्यकताएँ हैं
रोम रोम परस करें तुझको अभिराम,
प्राण पुलक बरस पड़े नित्य पूर्ण काम,
मैं खड़ा रहूँ तमाम उम्र, एक पाँव,
जो तेरे दरस मिले रोज सुबह शाम ।
साधना हूं, सिद्धि हूं, साधक स्वयं ही साध्य भी,
नित्य आराधक रहा हूं, साथ ही आराध्य भी,
स्वयं कृति हूं, अलंकृति हूं, विकृति भी, संस्कार भी,
निरा बन्धनहीन हूं, लेकिन कहीं पर बाध्य भी।
नव गीतों की नव स्वर लहरी पर संचार करें,
आगत के स्वागत द्वारा सपने साकार करें,
हुआ अतीत व्यतीत, विसंगतियों को विजय करें,
छोड़ो कथ्य अकथ्य पुराने, आओ प्यार करें ।
माना कि आज के जीवन में अनेक प्रकार की विषमताएँ, असंगतियाँ तथा विक्षोभकारी दबाव है किन्तु इनसे प्रभावित होकर दिव्य मानव-चेतना के वाहक और प्रकाशक कवि और कलाकार भी संत्रस्त, विक्षुब्ध और दिग्भ्रांत हो जायें इसे न मैं आवश्यक ही मानता है और न उचित ही। मुझे इस बात की गहरी खुशी है कि वर्तमान युग के अवसाद ने श्री ललित को जहां-तहां छुआ तो ज़रूर है लेकिन जीवन की मंगलमयता में उनके विश्वास को उसने कहीं भी धूमिल अथवा दुर्बल नहीं बनाया है-----
जुल्म जमाने भर के हम तुम साथ सहे तो कैसा हो ?
अपनी अपनी राम कहानी साथ कहें तो कैसा हो ?
लाख असंगतियाँ जीवन में एक साथ जब रह लेती
हम यायावर तुम यायावर, साथ रहें तो कैसा हो ?
वे कभी-कभी ऐसा अनुभव जरूर करते हैं कि---
दरवाजों पर अपशकुनों के भटक रहे हैं साये
मुस्काने पर मजबूरी ने पहरे लाख लगाये
जकड़ा है संत्रासित सांसों में सारा सम्वेदन,
भटक रहे हैं प्रतिबिंबों में बिम्ब बहुत बौराये।
किन्तु इस तरह को मानसिकता उनकी स्थिर मानसिकता नहीं है । उनका विश्वास है कि----
जीवन अरमान मधुर, जीवन मुस्कान है,
जीवन तो जीवन का सुमधुर सहगान है,
जीवट से जीना ही जीवन को काम्य है,
जीवन परमेश्वर का प्यारा वरदान है।
श्री ललित अपनी संवेदनाओं में अपने तक ही सीमित नहीं हैं, सम्भोग की तुलना में सहभोग में उनकी आस्था अधिक है। वे कहते हैं------
उपवन का मधुसार न केवल मेरा है,
सौरभ पर अधिकार न केवल मेरा है,
आओ मिलजुल कर रस पान करें हम सब,
धरती का श्रृंगार न केवल मेरा है।
और
अपने ही द्वार तक न फेंको उजियारा,
दूर दूर तक देखो ढूंढो अंधियारा,
जिस तिस की चौखट रह जाये न अंधेरी,
क्या जाने कोई भटका हो बनजारा ।
'प्रतिबिम्ब' में जीवन की दृष्टि से जन-जन के सहयोग और पारस्परिक सहभोग की यह स्वस्थ भावना बार-बार सामने आती है और मैं इसे ही इस रचना की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानता हूँ। अन्य कारणों के अतिरिक्त एक स्वस्थ जीवन-निष्ठा के सम्पर्क में आने की दृष्टि से 'प्रतिबिम्ब' के मुक्तक बारम्बार पठनीय हैं। दुरूह और दुर्गम अभिव्यञ्जना काव्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है और श्री ललित का काव्य इस दुर्गुण से सर्वथा मुक्त है, यह मेरे लिये बड़े सन्तोष की बात है -
निखर गया आतप लो बिखर गया सोना,
फैल गया धीरे से हर ठिठुरा कोना,
मिट चली सवेरे की सिहरती कंपकंपी,
जाड़े की धूप है कि गुनगुना बिछौना ।
तन खुल जाता है सो लेने के बाद,
कुछ मिल जाता है खो देने के बाद,
जैसे धरती का दर्पन सावन में चमके,
मन धुल जाता है रो लेने के बाद ।
बात तो तब है कि इंगित मात्र हो सन्देश,
बात तो तब है न मन में हो अहम् का लेश,
बदल जाता आदमी परिवेश के अनुरूप,
बात तो तब है बदल दे आदमी परिवेश ।
श्री ललित की सौन्दर्यानुभूति की अभिव्यक्ति में भावावेग, कल्पना और पदलालित्य का समन्वित विन्यास दर्शनीय है
तुम चितवन से नहला दो, मैं धुल जाऊँ,
प्रिय रोम रोम, रग रग में मैं घुल जाऊँ
अभिव्यक्ति अनुरुक्ति, भक्ति सब तुम से है,
तुम मुझे बाँध लो प्राण ! कि मैं खुल जाऊँ ।
श्वेत श्याम अरुणिम छवि दृग में भर लाई होगी,
अलस गात मधु स्नात, कष्ट में मुस्काई होगी,
बद्धाञ्जलि पूजन करती तुमको देखा होगा,
तभी कमल की रचना विधि के मन आई होगी।
धुल धुल कर निखरा है खेतों का रूप,
बरखा में गदराए गाँवों के कूप,
पनघट से चिपक गई भीगी चुनरी,
अभी अभी चुपके से नहा गई धूप
कविता के विवाद-रहित निर्मल और शाश्वत रूप में श्री ललित की अडिग निष्ठा है। वे अपने बारे में स्वयं घोषित करते हैं---
मैं न घिरा हूं कविता और अकविता के परिवेश में,
मैं न फिरा हूँ वाद और प्रतिवादों के आवेश में
भूखे अपने राम सहज रस-गति-सुर-गुंजित भाव के,
शब्द-शब्द अक्षर अक्षर पावन गीतों के वेश में।
श्री ललित के काव्य में जो बात मुझे सबसे ज्यादा रुचती है वह है उन की स्वस्थ जीवन-निष्ठा और अभिव्यंजना के क्षेत्र में प्रसाद गुण-युक्त शैली को निर्मल संगीतात्मकता---
पीड़ा से परिणय स्वीकार करो तो जानें,
अंजलियाँ भर भर विषपान करो तो जानें.
फूलों को देख देख हाथ सब बढ़ाते हैं,
कांटों पर पाँव रखो मुस्काओ तो जानें ।
आँखों ही आँखों में सबकुछ पी लूं
खुशियों की गोट लगा कथरी सी लूं
एक यही अभिलाषा मन में बाकी
मरने से पहले जी भर कर जी लूं ।
तुमको अर्पित सारे बसन्त मनुहारों के,
तुम मुस्का दो फिर देखो रंग बहारों के,
यह लो मैं आसमान को और झुकाता हूं,
दोनों हाथों से फूल चुनो तुम तारों के ।
दर्द भुला कर मुस्कानों से होठ सिये कोई,
रह कर नित अनाम अमृत के घूंट,
प्रतिभा यदि साधना पगी है तो सब सम्भव है,
यश मिलता है तब जब यश के हित न जिये कोई।
✍️ महेंद्र प्रताप
रविवार, 12 दिसंबर 2021
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख .... प्रोफेसर महेंद्र प्रताप के काव्य में प्रेम और सौंदर्य
गौर वर्ण ,दमकता भाल, व्यक्तित्व की विराटता को समेटे प्रो. महेंद्र प्रताप यानि ' दद्दा ' का वात्सल्य भाव अकस्मात ही सबका मन मोह लेता था, धोती कुर्ता पहने ,मुँह में पान दबाये दद्दा बनारसी फक्कड़पन और मस्ती में सराबोर, सदाबहार साहित्य जगत के महान पुरोधा कहे जा सकते हैं ।पूरा का पूरा भाषा-विज्ञान या साहित्य की विराट अक्षय पुंजीभूत सितारे की तरह देदीव्यमान दद्दा अपने समकालीन साहित्यिक जगत के सरताज थे ,जितना ही अक्खड़ उनका व्यक्तित्व था, उतना ही पारदर्शी उनका वात्सल्यमय उनका हृदय था।सब पर अपना प्रेम बिखेरते ,मानव -मूल्यों और जन -जीवन से गहरा नाता रखते थे ,उनकी हंसी से पूरा वातायन जैसे खिलखिला उठता हो ।प्रेम और सौंदर्य के अनुपम चितेरे दद्दा विशद दार्शनिक विचारों से परिपूर्ण प्रो महेंद्र जी चलते फिरते अकादमी से कम न थे ।अपने शिक्षकीय दायित्वों का पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ निर्वाहन करते हुए ,नैतिक आदर्शों और मानवीय मूल्यों को पूर्णता से निभाते हुए साधक की तरह थे ।मुरादाबाद महानगर के प्रतिष्ठित के.जी.के. महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक एवम प्राचार्य के दायित्वों को निभाते हुए साहित्यिक परिवेश में रचे बसे प्रो महेन्द्र जी एक युग को जीते रहें ।जीवन भर साहित्य-साधना करते हुए भी आत्म प्रदर्शन की भावना नहीं रखते थे --' मेरे गीत किसी के अनुचर हैं ' जैसे कवि किसी ऋण से उऋण होना चाहता है।
उनकी कविता उनका जीवन है ,प्रिय का आगमन कवि मन को खुशियों से भर देता है --
उतर पड़े मेरे आँगन में
तिमिर मिटा किरणें फूटी हैं
बन्द द्वार खुल गये चेतना
की दृढ़ कारायें टूटी
राह मिली है मिला तुम्हारे
करुण दृगों का मौन इशारा
प्रिय की पल -पल की प्रतीक्षा में विरहिणी मन की विकलता बढ़ती ही जा रही है --
दे रहें तुमको विदाई
आज आकुल चेतना है
व्यथा की बाढ़ आई
....गूँजता मधुमास स्वर था जहाँ,
पतकार आया
और फिर प्रिय उनके सपनों में आ उनकी चेतना को विकल कर रहा है --
स्वप्न में मैंने ऊषा की /रागिनी के गाल चूमे /और संध्या के सुनहरे /भव्य केश विशाल चूमे /
प्रिय के न आने पर मानों मन की विकलता पीड़ा बनकर कवि के अंतस से बह निकलती है --
गेय अगीत रहा /मैंने कितनी मनुहारे भेजी अगवानी में /कितनी प्रीत पिरो डाली/स्वागत की वाणी में /पर प्यार की परिधि पर/प्राणों का मीत रहा / गेय अगीत रहा
स्मृतियों के सुनेपन में जैसे प्रिय मन की मौन को तोड़ता गीत गा रहा हो ,उसकी मधुर रागिनी से मन का कोना -कोना झंकृत हो उठा हो --
मौन की पायल बजाता है / मौन में ही गुनगुनाता है / मैं कभी आवाज तो सुनता नहीं / पर मुझे कोई बुलाता है
प्रिय के मिलन को आतुर ,प्रेम पूरित हृदय लिए नायक प्रियमय होने लगा है --
मैं तुम्हारे लिए हूँ बना / स्नेह में हूँ तुम्हारे सना / प्राण में है पुलक प्यार की / और क्या मैं करूँ कामना / .......कामना अर्चना बन गयी / व्यंजना भावना बन गयी
अन्ततः कवि का प्रेमी मन प्रियमय को पाने की चरम आस लिए तड़प उठा है --
याचना की अबूझ प्यास हो / सांत्वना की सदय आस हो / तुम क्षितिज की तरह दूर हो / पर दरस के लिए पास हो
इस प्रकार प्रो महेंद्र जी की साहित्य साधना उनके हृदय की दासी की तरह उनकी अनुचरी हो ,जब चाहा ,जो चाहा ,जैसे भी चाहा सब कुछ अपने अनुसार ढालने की कृपा दृष्टि उन पर माँ वागेश्वरी की बनी रहती ।प्रकृति के सानिध्य में जैसे कवि सब कुछ भूल चुका है ,प्रकृति और प्रिय का सानिध्य ही उसके जीवन का पाथेय बन गया हो -- रात्रि कब की हो चुकी है / प्रकृति आधी सो चुकी है / किंतु मैं लघु दीप सन्मुख / तुम्हारे मधु स्मरण में /जागरण ही चाहता हूँ
औरअपने प्रिय के सन्निकट रहकर कवि का ऐसा पावन रिश्ता बंध गया है --
साथ तुम मेरे रही हो / और प्रिय एकांत में / संगीत लहरी बन बही हो / आज यौवन भार लेकर / छोड़ कर जाना न संगिनी / जी रहा तेरे सहारे /
पर प्रिय है कि आंखमिचौली खेलता ही रहता है ,उसकी प्रतीक्षा में थक चुका मन ,क्षण - क्षण पथ निहार रहा है ---
कितने दृग पंथ रहे निहार /स्वागत है अभ्यागत उदार / तुम आये बन वसंत वन में / भावों के सुमन खिले मन में / प्राणों का कलरव गूँज रहा / उल्लास भर गया जीवन में /
इस प्रकार प्रो महेंद्र जी के गीत श्रृंगार प्रधान होते हुए भी ,उनमें विरह -वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है ।उनके काव्य का भावपक्ष जितना प्रखर है उसका कलापक्ष उतना ही उत्कृष्ट है ।अपने जीवन में विविध रूपों को जीते हुए प्रो महेंद्र जी समकालीन कविता के निकट रहकर तत्कालीन कवियों और आलोचकों के प्रिय भी रहे ।जो लिखा ,जितना भी लिखा है उनका साहित्य अपने समय के धरोहर के रूप में संजोये जा सकते हैं --
सूखे जितना अधर हृदय की
धरती उतनी ही हो उर्वर
******************
विकल- करुणा - धार पर तुम
आज बन बरसात छाई ।
✍️ डॉ मीरा कश्यप
अध्यक्ष हिंदी विभाग
के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष प्रो. महेंद्र प्रताप के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित योगेन्द्र वर्मा व्योम का आलेख- मैं वंशी हूँ मेरे भीतर गाता कोई...
यह समय का योग रहा या मेरे भाग्य का हेटापन कि मुझे कीर्तिशेष दादा महेन्द्र प्रताप जी का बहुत ही अल्प सान्निध्य या आशीर्वाद मिल सका, फलतः मेरे पास दादा से जुड़ा कोई संस्मरण विशेष तो नहीं है किन्तु फिर भी लगभग 17-18 वर्ष पहले हिन्दी दिवस के एक कार्यक्रम में उनकी गरिमामयी उपस्थिति और उनके प्रभावशाली उद्बोधन का मैं भी साक्षी रहा हूँ। संभवतः 2002 की बात है, संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में लाइनपार स्थित गायत्री मंदिर में हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन था जिसकी अध्यक्षता कीर्तिशेष दादा महेन्द्र प्रताप जी कर रहे थे। कार्यक्रम की रूपरेखा के अनुसार पहले सत्र में विचार गोष्ठी तत्पश्चात दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी का आयोजन निर्धारित था। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी साहित्य संगम संस्था के अध्यक्ष और कीर्तशेष कवि राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग जी कर रहे थे। मंच पर दादा के साथ अतिथियों के अतिरिक्त कई वक्ता भी उपस्थित थे। विचार गोष्ठी में पूर्वप्रदत्त विषय पर वक्ताओं के उद्बोधन के पश्चात कार्यक्रम अध्यक्ष होने और सर्वाधिक वरिष्ठ होने के नाते अंत में दादा का उद्बोधन हुआ जो काफ़ी लम्बा चला। उसके पश्चात कार्यक्रम के दूसरे सत्र के रूप में जैसे ही काव्य गोष्ठी का आरंभ हुआ, दादा बोले-"भाई अब मैं नीचे श्रोताओं में बैठूँगा और वहीं से कवियों को सुनूँगा।" सब लोगों ने कहा कि "दादा, आप कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हैं इसलिए आपको मंच पर ही बैठना चाहिए।" लेकिन दादा नहीं माने। यह उनके बड़े साहित्यिक क़द और दंभरहित सहज व्यक्तित्व का प्रमाण था. कार्यक्रम के अंत तक दादा उपस्थित रहे और सभी कवियों को उन्होंने गंभीरता पूर्वक सुना भी और भरपूर सराहना भी दी. दादा महेंद्र प्रताप जी से जुड़ी पावन अल्प स्मृतियों को प्रणाम और दादा को विनम्र श्रद्धांजलि।
साहित्यिक मुरादाबाद तथा डा. अजय अनुपम जी के संपादन में प्रकाशित "महेन्द्र मंजूषा" में दादा महेंद्र प्रताप जी के गीत पढ़ते हुए कीर्तिशेष गीतकवि विद्यानंदन राजीव जी कथन स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'कविता के उपवन में गीत चंदन-तरु के समान हैं, जो अपनी प्रेरक महक से मनुष्य को जंगलीपन से मुक्ति दिलाकर जीने का सलीक़ा सिखाता है।' दादा के गीतों से गुज़रते हुए भी उसी चंदन की भीनी-भीनी महक महसूस होती है क्योंकि आध्यात्मिक भाव-व्यंजना के माध्यम से मनुष्यता के प्रति दादा की प्रबल पक्षधरता उनके लगभग सभी गीतों में प्रतिबिंबित होती है, उदाहरणार्थ उनके एक गीत के इस अंश का गांभीर्य कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह रहा है-
मैं डाली हूँ मुझमें फूल खिलाता कोई
मैं वंशी हूँ मेरे भीतर गाता कोई
एक भ्रान्त छाया में मेरी अस्ति समाई
मुझको गले लगाकर व्यक्ति बनाता कोई
दादा महेन्द्र प्रताप जी के गीतों को सतही तौर पर पढ़ा जाए तो प्रथम् दृष्टया ये गीत सहज प्रेमगीत ही लगते हैं किन्तु यदि गीतों के भीतर उतरकर उनकी भावभूमि को अनुभूत किया जाए तो ये गीत विशुद्ध आध्यात्मिक गीत प्रतीत होते हैं जिनमें उन्होंने अपने अभीष्ट के रूप में ईश्वर को केन्द्रित कर अपने भाव अभिव्यक्त किए हैं-
बन्द द्वार तक आकर आहट ने मुख मोड़ लिया
मैंने भ्रम में सारे जग से नाता जोड़ लिया
संकुलता का क्षोभ चेतना को है चीर रहा
पर, प्राणों का लक्ष्य अलक्षित और अजीत रहा
गेय अगीत रहा...
दादा महेन्द्र प्रताप जी का ऐसा ही एक और गीत है जिसमें वह अपने भीतर की आध्यात्मिक भावाभिव्यक्ति को पराकाष्ठा की सीमा तक जाकर जीते हुए अपनी दिव्य प्यास का उल्लेख करते हैं-
एक बार जागे तो जागे,
फिर न बुझाने से बुझ पाए
जिसमें सुख की सत्ता डूबे,
जिसमें सब दुख-द्वंद समाए
ऐसी जलन जगे, शीतलता,
जिसके पीछे-पीछे डोले
जिसको गले लगाकर
तृष्णा का मरुथल मधुबन बन जाए
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ...
दादा महेन्द्र प्रताप जी का रचनाकर्म मात्रा में भले ही कम रहा हो किन्तु महत्वपूर्ण बहुत अधिक है। उनकी रचनाओं में सृजन के समय का कालखण्ड पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है, निश्चित रूप से दादा की सभी रचनाएँ साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
मोबाइल- 9412805981
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो. महेंद्र प्रताप पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरणात्मक आलेख .... मेरे साहित्यिक जीवन की प्रथम पाठशाला थी 'अंतरा'
बीती सदी का नवां दशक , जब मैंने शुरू की थी अपनी साहित्यिक यात्रा। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 'अंतरा' की गोष्ठियां ही मेरे साहित्यिक जीवन की प्रथम पाठशाला बनीं। इन गोष्ठियों में 'दादा', श्री अंबालाल नागर जी, श्री कैलाश चंद अग्रवाल जी, पंडित मदन मोहन व्यास जी, श्री ललित मोहन भारद्वाज जी, श्री माहेश्वर तिवारी जी ने मेरी अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाया और उनके संरक्षण एवं दिशा निर्देशन में मैंने साहित्य- पत्रकारिता के मार्ग पर कदम बढ़ाए । दादा और आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी के सान्निध्य से न केवल आत्मविश्वास बढ़ा बल्कि सदैव ऐसा महसूस हुआ जैसा किसी पथिक को तेज धूप में वृक्ष की शीतल छांव में बैठकर होता है।
इसी दौरान मैंने दादा के संरक्षण में एक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था ''तरुण शिखा'' का गठन भी कर लिया था। लगभग छह साल तक निरंतर 'तरुण-शिखा के माध्यम से मैं देश के प्रख्यात साहित्यकारों के जन्म दिवसों एवं पुण्य तिथियों पर विचार गोष्ठियां आयोजित करता रहा। इसकी लगभग सभी गोष्ठियों में दादा उपस्थित होते थे और मुझे प्रोत्साहित करते थे।
मुझे याद है 26 दिसम्बर 1985 का दिन, प्रख्यात कथाकार यशपाल के साहित्य पर मैंने तरुण शिखा की ओर से अपने निवास पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। दादा प्रो० महेन्द्र प्रताप, निर्धारित समय दोपहर दो बजे से पहले ही आ गए। धीरे धीरे केजीके महाविद्यालय के हिन्दी प्रवक्ता अवधेश कुमार गुप्ता, रणवीर दिनेश, राजीव बंसल राज भी आ गए। अन्य आमंत्रितों की प्रतीक्षा होती रही। समय व्यतीत होता गया. घड़ी की बड़ी सुई सरकते सरकते छह पर आ गयी और छोटी सुई तीन से आगे निकल चुकी थी। डेढ़ घंटा हो चुका था लेकिन आमंत्रित साहित्यकारों में से और कोई उपस्थित नहीं हुआ। यह स्थिति देख कर मैं पूरी तरह हतोत्साहित हो चुका था। आयोजन की शुरुआत किस तरह की जाये, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरी मनोदशा को भाँपते हुये अचानक 'दादा' ने कहा- "मनोज, इस तरह हतोत्साहित होने की कोई बात नहीं है। ऐसी गोष्ठियों से जहाँ नये चिंतन, विचारधाराओं से साक्षात्कार होता है वहीं आत्म निर्माण भी होता है। तुम्हारा यह प्रयास शहर में एक नई शुरुआत है जो धीर-धीरे ही सफल होगा।" बीस साल पहले दादा के यह शब्द एम०ए० अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के लिये एक प्रेरणा बन चुके थे।
दादा के एक और संस्मरण का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा । 5 दिसंबर 1988 को मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार, संगीतज्ञ, कलाप्रेमी पंडित मदन मोहन व्यास जी की जयंती पर मैंने तरुण शिखा, चेतना केंद्र और प्रयास नाट्य संस्था के संयुक्त तत्वावधान में संगीत, विचार व काव्य गोष्ठी का आयोजन हिंदू महाविद्यालय के अर्थशास्त्र व्याख्यान कक्ष में किया। आयोजन में स्मृतिशेष व्यास जी के लगभग सभी परिजन, अनेक मित्र, साहित्यकार, संगीतज्ञ और रंगकर्मी उपस्थित थे। दादा प्रो महेंद्र प्रताप जी कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे और विशिष्ट अतिथि आदरणीय माहेश्वर तिवारी थे। संचालन का दायित्व मेरे कंधों पर था । कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष दादा प्रो महेंद्र प्रताप जी का नाम उद्बोधन के लिए पुकारा गया । बोलने के लिए खड़े होते ही वह फफक फफक कर रोने लगे , आंखों से अश्रुधारा बहने लगी । यह देख कर उपस्थित सभी लोग भाव विह्वल हो गए और उनकी भी आंखे नम हो गई। काफी देर बाद स्थिति सामान्य हुई। भर्राए कण्ठ से दादा अधिक नहीं बोल सके। ऐसी थी उनकी सम्वेदनशीलता।
उनका कहना था कि कविता लिखने से ज्यादा जरुरी है अपने अंदर कविता की समझ पैदा करना। यह जानना भी जरूरी है कि हमारे समकालीन रचनाकार क्या लिख रहे है और पूर्ववर्ती रचनाकारों ने हमें क्या दिया? उनके यह प्रेरणाप्रद वाक्य सचमुच मेरे लिये एक दिशा बन चुके थे और मैं अपना लक्ष्य निर्धारित कर चुका था मुरादाबाद जनपद के साहित्य पर शोध कार्य करने का। इसी लक्ष्य पूर्ति के लिये मैंने हिन्दी विषय से एमए किया और फिर पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की।
यह मेरा सौभाग्य है कि लगभग 21- 22 साल तक मुझे दादा का आशीष प्राप्त होता रहा। बहुत कुछ है लिखने को ....
'दादा' आज हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी स्मृतियां उनका दुलार, उनका आशीष सदैव मुझे आगे.... और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहेगा।
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
शनिवार, 11 दिसंबर 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो महेंद्र प्रताप पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- हिन्दी के श्लाका पुरुष - स्व महेंद्र प्रताप। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।
यदि मुरादाबाद के हिन्दी साहित्य जगत की चर्चा की जाए तो यह महेन्द्र प्रताप जी के उल्लेख के बिना अधूरी ही रहेगी। दरअसल, वे अपने जीवनकाल में ही इतने अपरिहार्य बन चुके थे कि उनकी गरिमामयी उपस्थिति के बिना किसी आयोजन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। यदि कोई व्यक्ति सचमुच इतना अपरिहार्य बन जाए तो उसके व्यक्तित्व की ऊँचाई की सहज कल्पना की जा सकती है।
गौरवर्ण, प्रशस्त भाल, आँखों पर मोटा चश्मा, होठों पर मंद-मधुर मुस्कान और धवल वस्त्रों में सजे सहज-सरल महेन्द्र प्रताप जी दूर से ही देखने पर एक साहित्यकार नजर आते थे- निराला, प्रसाद या प्रेमचन्द की पीढ़ी के न सही किन्तु नामवर सिंह या काशीनाथ सिंह सरीखे तो वे थे ही। हिन्दी साहित्य जगत के अनेक नक्षत्रों से उनका व्यक्तिगत परिचय था। वे अनेक नामचीन साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में रहे। छात्र जीवन में ही उन्हें प्रसाद जैसे महाकवि का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था। किन्तु पता नहीं किन परिस्थितियोंवश महाकवि का आशीर्वाद फलीभूत नहीं हो सका।
इसे मुरादाबाद के साहित्यिक जगत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दशकों तक अध्ययन अध्यापन और साहित्यिक कार्यक्रमों में आजीवन उपस्थिति के बावजूद स्वयं महेन्द्र प्रताप जी का सृजन उनकी प्रतिभा को देखते हुए बहुत कम है। उनके साहित्यिक सृजन के नाम पर बस कुछ गीत-गज़ले ही आज उपलब्ध हैं जो संभवतया उन्होंने अपनी युवावस्था में रची थीं। रोमानी भावनाओं से परिपूर्ण इन गीत-गजलों के आधार पर उनके साहित्यिक प्रतिभा का सही-सही अनुमान लगा पाना संभव नहीं है। महेन्द्र जी के गीत-गज़ल उनकी प्रतिभा के साथ ठीक-ठीक न्याय नहीं करते।
ऐसा नहीं है कि महेन्द्र प्रताप जी की साहित्य सृजन में कोई रुचि नहीं थी या उनमें इसकी क्षमता नहीं थी। न ही वे इसे गौण या हेय कार्य समझते थे। दरअसल, साहित्य सृजन विशेषकर काव्य रचना के प्रति उनकी वितृष्णा का मुख्य कारण यह था कि वे भक्तिकालीन कवियों, विशेषकर तुलसीदास से बहुत ज्यादा प्रभावित थे और उनकी श्रेणी का या उससे बेहतर काव्य रचने में स्वयं को असमर्थ पाते थे। अतः उन्होंने स्वेच्छा से साहित्य रचना से संन्यास या यूँ कहे कि अवकाश ले लिया था। हाँ, उनकी गीत-गज़लों की शब्दावली और छन्द विधान को देखकर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि महेन्द्र प्रताप जी ने पूर्ण समर्पण के साथ साहित्य रचना की होती तो उनका साहित्य निश्चित ही एक निधि होता। किन्तु अब जबकि उनका साहित्य सृजन ही पर्याप्त मात्रा में नहीं है अतः उनके कृतित्व के इतर पहलुओं पर ही अधिक चर्चा की जा सकती है।
महेन्द्र प्रताप जी ने भले ही विपुल मात्रा में साहित्य सृजन न किया हो किन्तु वे अनन्य हिन्दी प्रेमी और हिन्दी सेवी अवश्य थे। हिन्दी से जुड़ा कोई कार्यक्रम हो और महेन्द्र जी को उनमें आमंत्रित किया जाए तो वे आयोजकों के समक्ष बिना कोई शर्त रखे ससमय कार्यक्रम के अंत तक उपस्थित रहते थे। उनकी गरिमामयी उपस्थिति से ही कार्यक्रम प्राणवान हो जाते थे और उनके बिना गोष्ठियों की जीवंतता ही समाप्त हो जाती थी। हिन्दी से जुड़ी नगर की प्रत्येक संस्था उनकी उपस्थिति के जरिये अपनी प्रतिवद्धता सिद्ध करना चाहती थी। उनकी उपस्थिति के बिना हिन्दी सेवी संस्थाओं की प्रामाणिकता ही संदिग्ध हो जाती थी।
स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी अपने स्तर से आजीवन हिन्दी की सेवा करते रहे। साहित्यिक संस्था 'अंतरा' और 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' के जरिये उन्होंने हिन्दी जगत की अविस्मरणीय सेवा की। 'अंतरा' की गोष्ठियों के जरिये न केवल हिन्दी जगत को अनेक समर्थ रचनाकार प्राप्त हुए बल्कि अनेक महत्वपूर्ण कृतियां भी प्रकाश में आयी। माह के प्रत्येक पक्ष में आयोजित होने वाली 'अंतरा' की गोष्ठियां इस मायने में सचमुच अनूठी कही जायेंगी कि उनमें साहित्यिक कृतियों पर न केवल विस्तार से चर्चा होती थी बल्कि सदस्य रचनाकारों की कृतियों की विस्तृत चीर-फाड़ भी होती थी ताकि रचनाएँ अपने परिष्कृत रूप में पाठकों के सामने आएं। महेन्द्र प्रताप जी मूलतः समालोचक थे अतः साहित्यालोचना में विशेष आस्वाद मिलने के कारण ही वे इस कर्म की ओर प्रवृत्त हुए थे। 'अंतरा' के जरिये साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के परिष्कार को ही उन्होंने अपना ध्येय बनाया था। ज्ञान का तो जीता-जागता भण्डार थे वे। बस एक बार कोई साहित्यिक चर्चा उनके सामने शुरु हो जाए फिर तो उनके ज्ञान का पिटारा खुलता ही चला जाता था और उसका कोई अंत ही नजर नहीं आता था। ज्ञान चर्चा उन्हें सदैव प्रिय थी, प्राध्यापक होने के नाते वे श्रोता समुदाय को छात्रवत् समझते थे और अपना समस्त ज्ञान उंडेलने को आतुर रहते थे। अपनी बात को सन्दर्भों-अवांतर प्रसंगों के जरिये विस्तार पूर्वक समझाने का यल करते थे और कभी-कभी तो बात में से इतनी बात निकलती जाती थी कि मुख्य सूत्र ही कहीं छूटते नजर आते थे। जीवन की सांध्य बेला में हृदयाघातों के कारण चिकित्सकों ने यद्यपि उन्हें अधिक बोलने से परहेज करने को कहा था तथापि उनका प्राध्यापक मन और उनके अन्दर बैठा साहित्यकार व्यक्तित्व उन्हें सतत् संवाद के लिए प्रेरित करता रहता था। दरअसल वे 'संवाद' में विश्वास रखते थे और जीवन भर वे संवाद ही करते रहे- कभी अपने छात्रों से तो कभी व्यक्तियों और समाज से, तो कभी व्यापक स्तर पर अपने समय से ।
महेन्द्र जी केवल अपने समय और समाज से ही संवाद नहीं करते थे बल्कि स्वयं से भी संलाप करते थे। किन्तु स्वयं से संलाप कभी एकालाप नहीं रहा। वह सभी के लिए एक संदेश रहा है। जैसा कि उनके प्रसिद्ध गीत 'ऐसी प्यास से कहाँ से लाऊँ' की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट है -
“ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ
जिससे मानस तपे, क्षुब्ध
होकर जागे उसकी गहराई,
सीमा की लघुता घुल जाये,
पड़े अकूल अलक्ष्य दिखाई
जो आँखों का मृग जल पीकर
फिर विदग्धता का प्रकाश दे
जिसकी ज्वाला का कल्मष भी
विमल नयन अंजन बन जाये
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ।"
तुलसी साहित्य महेन्द्र जी का प्रिय विषय था। उनका प्रयास होता था कि कोई भी चर्चा घूम-फिरकर तुलसी साहित्य पर अवश्य आ जाए। तुलसी साहित्य पर उनका अध्ययन व्यापक था और वे फादर कामिल बुल्के की तरह ही तुलसी साहित्य अनुरागी थे। तुलसी साहित्य पर वे बुरी तरह मुग्ध थे और युवा पीढ़ी में इसके प्रति घटती रूचि पर किंचित रूष्ट भी।
हाँ, समकालीन साहित्य और रचनाकारों के प्रति उनकी जानकारी कोई विशेष नहीं थी। इसके पीछे शायद यही कारण था कि समकालीन साहित्य को वे स्तरहीन समझते थे और इसमें उनकी रूचि भी नहीं थी।
महेन्द्र प्रताप जी के व्यक्तित्व के कुछ दूसरे पहलू भी है जिन पर शायद ही कभी चर्चा होती है। बहुत कम लोग जानते हैं कि जितनी उच्च कोटि के वे साहित्य मनीषी थे उतने ही बड़े संगीत विशारद भी। संगीत, नाटक या रंगमंच की कोई भी गतिविधि महेन्द्र प्रताप जी के बिना अधूरी रहती थी। समाज सेवी तो वे थे ही। सही बात तो यह है कि महेन्द्र प्रताप जी एक श्लाका पुरुष थे और उनका नाम करीब-करीब एक किंवदंती बन चुका है।
✍️ राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो महेंद्र प्रताप के दस गीत ---
( 1)
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ
एक बार जागे तो जागे
फिर न बुझाने से बुझ पाये,
जिसमें सुख की सत्ता डूबे
जिसमें सब दुख द्वंद्व समाये,
ऐसी जलन जगे शीतलता
जिसके पीछे पीछे डोले,
जिसको गले लगाकर तृष्णा
का मरुथल मधुवन बन जाये।
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ?
प्यास कि जिससे कंठ जले
तो फूटे स्वर के मधुमय निर्झर,
सूखे जितना अधर हृदय की
धरती उतनी ही हो उर्वर
प्यास कि जिसकी आग जलाये
जितना उतना रस बरसाये
जिसकी लपटों में पड़कर
जलता निदाघ सावन बन जाये।
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ।
जिससे मानस तपे, क्षुब्ध
होकर जागे उसकी गहराई,
सीमा की लघुता घुल जाये,
पड़े अकूल अलक्ष्य दिखाई
जो आँखों का मृग जल पीकर
चिर विदग्धता का प्रकाश दे
जिसकी ज्वाला का कल्मष भी
विमल नयन अंजन बन जाये।
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ?
( *2* )
आज मेरा कण्ठ फूटा,
रागिनी तुमने उठाई।
आँसुओ को जोड़ कर भी
हार पूरा कर न पाया
प्राण की व्याकुल-व्यथा
आराधना में भर न पाया,
आज मेरी याचना गूँजी
प्रिये तुम गुनगुनाई।
दो दिशाओं से चले
पथ सींचते हम आ रहे है,
तम- क्षितिज पर रुधीर -
रेखा खींचते हम आ रहे है,
आज ले घन चित्र अपने
तुम नयन नभ बीच आई।
दो व्यथित व्याकुल विदेशी
आज मिल कर रो रहे है,
सुन परस्पर की अकथ आकुल
कथा, सुधि खो रहे है।
विकल-करुणा-धार पर तुम
आज बन बरसात छाई ।
मौन मेरा स्वर तुम्हारा पा
सहारा आज बोला
पा तुम्हे सोये हृदय का
क्रान्ति बेसुध प्यार डोला
शून्य मन में आज तुम
वैभव परी होकर समाई।
( *3* )
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मैं
आज कलि बन कर सुमन प्रिय
है लुटाती सुरभि अपनी
वायु के लघु मधु झकोरों
में उड़ाती लाज अपनी
वह सुरभि जो रह हृदय में,
थी बनाती रुप सुखमय
आज खुलने पर हृदय के
खो रही है शक्ति अपनी
शुष्क होकर गिर पड़ेगा पुष्प यह बस काल लय में।
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं में।।
चल रही नौका हृदय की
विश्व के इस अतल जल में
खे रहा पतवार नाविक
था भरोसा बाहु बल में
आज तुमसे हीन होकर
हो गया जब क्षीण हूँ मैं
क्या लगेगी पार तरिणी,
नियति की झंझा प्रबल में
"तरी' को निज भाग्य पर ही छोड़ता अब हैं सुमुखि मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मै
योजनाओं से बनाता
मैं रहा हूँ नीड़ अपना
देखता दृग भींच कर भी
बार बार सुखान्त सपना।
आज कैसे पा न तुमको
रह सकेंगे प्राण मेरे
कर न देगें क्या विरह आघात
अन्तर जीर्ण अपना
पर तुम्हारे मान के हित आज सहता हूँ इन्हें मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं में
स्वप्न में मैंने उषा की
रागिनी के गाल चूमे
और संध्या के सुनहरे
भव्य केश विशाल चूमे।
यामिनी के मधु उरोजों पर
कभी मोहित हुआ था.
और अम्बर में उदित
इन तारकों के भाल चूमे
सान्ध्य रवि की भांति, सखि! अब किन्तु ढलता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मैं।।
यह मिलन के स्वप्न सखि
कल आंख के मोती बनेंगे
और मधु ऋतु के सुमन यह
ग्रीष्म को कैसे सहेंगे।
किन्तु आशा पर प्रिये,
अब हो रहा हिमपात दुर्दम्
और स्वर जो गान रचते
शीघ्र अति भीषण बनेगें ।
मम रुदन को सुन न पाओ. दूर जाता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा, आज हटता हूँ स्वयं मैं।।
सिन्धु से मैंने व्यथित हो
सुधा के दो घूंट मांगे,
किन्तु सन्मुख देखता प्रिय
यह हलाहल पात्र आगे।
सुरों को भी अभिय के पहले
मिला था कटु हलाहल
तो सुखों को प्रथम हो
हम पायेंगे कैसे सुभागे।
आज तप करने इसी से दूर जाता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूं स्वयं मैं
आज सीमन्तिनि तुम्हे तज
स्वयं सीमा हीन हूँ मैं।
आज बन्धन तज तुम्हारा
मुक्त बन्धन हीन हूँ मैं।
पर मिलेगा सुख कहां से
सुधि बनी है भार संगिनि
अश्रु जल के सूखने पर
लघु तड़पती मीन हूँ मै
मुक्त होकर भी तड़पता आज फिरता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मैं।।
( *4* )
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ
रात्रि के पिछले पहर में,
और इस गहरे तिमिर में,
मैं निकल नैराश्य नद से..
आश की अरुणाभ उजली।
एक लय भर चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।।
रात्रि कब की हो चुकी है,
प्रकृति आधी सो चुकी है
किन्तु मैं लघु दीप सन्मुख
तुम्हारे मधु स्मरण में,
जागरण ही चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।
दौड़ कर सरिता चली है
रात्रि आधी जा ढली है
मूक इस वनस्थली में,
निज विगत स्नेह का, सखि
एक स्वर गा चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।।
हो गयी तुम दूर मुझ से
पर तुम्हारा प्रेम अब तक
है बना भरपूर मुझ से
खो चुका तन किन्तु उसकी
याद में मन चाहता हूँ
पी सके जोश का विष
दीप्तिमय वर चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।।
( *5* )
मैं कहता हूँ कुछ मान करो,
तुम आगे बढ़ती आती हो।
मेरे सम्मुख हे देवि किन्तु
क्यों इतनी झुकती जाती हो।
है कहा बहुत मैने तुमसे
यह विश्व नहीं इतना उदार,
सुख देख दूसरे का मानव
है पाता उसको हृदय भार ।
है दुखी देख निज प्रिय जन को
होता है आज सुखी मानव,
मुर्झाकर गिरते देख सुमन
अब नहीं दुखी होता मानव
बालपन से साथ तुमको
देखता अनुपल रहा हूँ,
छिप गयी कुछ समय को
पर क्या कभी है साथ छोड़ा।
सहचरी विपदा कुमारी
से न छूटा साथ मेरा,
सहन की भी शक्ति प्रियतम
विरह सह पायी न तेरा।
रुष्ट होने पर सभी के
साथ तुमको सदा पाता,
जो न सुख में साथ देवे
विश्व में बस यही नाता।
विरह बनकर प्रेम में प्रिय
साथ तुम मेरे रही हो,
और प्रिय एकान्त में
संगीत लहरी बन बही हो।
आज यौवन भार लेकर
सामने प्रस्तुत तुम्हारे,
छोड कर जाना न संगिनि
जी रहा तेरे सहारे ।
( *6* )
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी
आज लख प्रत्यक्ष तुमको
लोग हँस स्वागत करेंगे।
और पद, सम्मान लख कर
विहँस अभ्यागत करेगें।
सब प्रिये प्रत्यक्ष में
सम वेदना अवगत करेंगे।
मित्र उपकारी सदा सब
स्वयं ही प्रस्तुत करेंगे।
किन्तु हटते ही तुम्हारे
हास बन उपहास जाता।
और प्रिय आदर तुम्हारा
जलन का बन ग्रास जाता।
नियम सा ही बन गया अब असत यह व्यवहार साथी
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी ।।
आज गिरि ने तृषित रह कर
नीर अन्तर में समेटा।
झील को निज गर्भ में रख
शिखर ने निज रुप मेटा।
किन्तु प्यासी अवनि को लख
सौम्य निर्झर बना भेंटा।
तोड़ कर गिर अंग निर्झर
वक्र गति से चला ऐंठा
किन्तु पीकर अश्रु गिरि के
अवनि मन में मोद करती।
और कर उपहास गिरि का
हरितिमा से गोद भरती
किन्तु लख उपहास गिरि ने मान ली है हार साथी
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी
सिन्धु ने प्रिय स्वयं तप कर
जन्म नीरद को दिया है।
और दे निज हृदय का रस
सरस घन स्यामल किया है।
कर हृदय मंथन स्वयं, घन
शक्ति से प्लावित किया है।
प्रिये कडुवाहट स्वयं रख
मधुर जलधर को किया है।
किन्तु घन ने छोड़ सागर
गगन से सम्बन्ध जोड़ा
और कर घनघोर गर्जन
उपल से हिय सिन्धु तोड़ा।
भूल सब करना गये है आज प्रत्युपकार साथी ।
सत्य की अवेहलना कर चल रहा संसार साथी ।
मधुर कलि बन कर सुमन
निज सरस अन्तर खोलती है।
रुप ले अधखिला अपना
मधु पवन लख डोलती है।
देख रस पीते मधुप को
कुछ न उससे बोलती है।
रुप रस कर मधुर अर्पण
प्रेम उसका तोलती है।
किन्तु कर रस पान कलि का
दूर उड़ जाता मधुप है।
मूक आवाहन सुमन का
बन चुका अब व्यर्थ तप है।
अब न लौटेगा मधुप फिर व्यर्थ सब मनुहार साथी ।
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी ।
( *7* )
कितने दृग पंथ रहे निहार
स्वागत है अभ्यागत उदार ।
तुम आये बन वसंत वन में,
भावों के सुमन खिले मन में,
प्राणों का कलरव गूँज रहा,
उल्लास भर गया जीवन में,
है सुरभि लुटाती डोल रही
पुलकित सॉसों की मधु बयार !
तुम आये हमको ध्येय मिला,
श्रद्धा को अपना श्रेय मिला,
चिर मौन प्रतीक्षा में डूबी,
ममता को अपना प्रेय मिला,
बन गयी साधना आज सिद्धि
है बरस रही निधियों अपार
तुम आये हे जल मन रंजन,
हो गये तृप्त प्यासे लोचन
बजती है मंगल शहनाई
हो गया धन्य यह गृह आंगन
आओ सुमनों का आसन लो,
पलकें लें पावन पद पखार ।
( *8* )
कवि करो स्वीकार मेरी अर्चना के फूल।
प्राण वीणा से तुम्हारी
जो उठे कल्याण के स्वर
आज भी है गूंजता
उनसे अवनितल और अम्बर,
आज भी मानस तुम्हारा
भर रहा है विश्व मन को
कर रहा नत है दिशाओ
को तुम्हारी विनय का वर
सींचती करुणा तुम्हारी आज भी जग कूल ।
कवि करो स्वीकार मेरी अर्चना के फूल।
दूर जाकर भी रहे तुम
पास हे मानव चिरन्तन,
छोड़ जड़ आवास तुमने
है किया स्वीकार जन-मन,
झर रही प्रतिभा तुम्हारी
चेतना स्रोतस्विनी बन,
भीग जिससे है बना रसमय
धरा का विकल कण-कण
है हुआ पावन धरनितल पा चरण की धूल।
कवि करो स्वीकार मेरी अर्चना के फूल।
( *9* )
उतर पड़े मेरे आँगन में
तिमिर मिटा, किरणें फूटी हैं,
बन्द द्वार खुल गये चेतना
की दृढ काराएं टूटी हैं ,
राह मिली, है मिला तुम्हारे करुण दृगों का मौन इशारा।
घर यह मन्दिर बना देवता
स्वयं यहाँ चलकर आया है
पूजा फूल बरसने आँखों
मे भावों का घन छाया है,
पूजा पूरी हुई मिला वरदान परन्तु पुजारी हारा
मुग्ध पथिक मैने पथ पाकर
भी चलने की सुधि बिसराई
आज स्वयं मंजिल ही मेरे
आगे मेरे पथ में आई
आवर्तो के बीच तुम्हारे चरण मिल गये, मिला किनारा ।
चूम रहे मेरे मधु लोभी अधर
सुमन मय-चरण तुम्हारे
गूँज रही प्राणों की वाणी
अपना स्वरमय वसन पसारे
बरसो किरण पराग, करो अनुरंजित मेरा तन-मन सारा
( *10* )
दे रहे तुमको विदाई
आज आकुल चेतना है व्यथा की बाढ आई।
था कभी अनजान प्राणों को मिला परिचय सहारा
बह चली थी जोड़ती जीवन तटों को स्नेह - धारा
पुलक-कण्ठों के मधुर संगीत से जीवन सरस था
पर नियति ने आज इस मरुभूमि में लाकर उतारा,
प्यास बुझने के प्रथम ही कंठ में ज्वाला समाई
दे रहे तुमको विदाई !
गूँजता मधुमास का स्वर था जहाँ, पतकार आया
स्वर्ग का साकार सुख है बन गया सुधि स्वप्न छाया
छा गया है आज संध्या का तिमिर अवसाद, जिसमें
था वही अरुणा उषा ने रागमय कुंकुम लुटाया,
आज मिटती जा रही सुख सृष्टि जो हमने बसाई !
दे रहे तुमको विदाई !
आज जलते नेत्र हैं पथ में सजल मोती बिछाते,
विकल कम्पन मय स्वरों से हम तुम्हे मंगल मनाते,
सुखद आशा है मधुर स्मृति का हमें प्रश्रय मिलेगा
सोचकर हम आज गीतों से विदा का क्षण सजाते,
लो करो स्वीकार, आँखे आँसुओं का हार लाई ।
दे रहे तुमको विदाई।
:::::::: प्रस्तुति ::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
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मुरादाबाद 244001
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